Search This Blog

Thursday, January 24, 2013

kab aisa maine socha thha...


क्या चाहा था मैने तुमसे, इक कतरा मेरा अपना ही... 
 
जो वो भी मुझे नसीब न होगा, कब ऐसा मैंने सोचा था
 
कब की प्यासी हूँ क्या जानूँ, अब तो वो भी याद नहीं...
 
समंदर से प्यास बुझाने चली, भूल गई वो खारा है...
 
ऐसा पानी भी क्या पानी, पीकर जिसको जल - कुढ़ जाऊँ भीतर भीतर

क्या मैं कहूँ किस - किसको समझाऊं... क्या - कैसा मैंने सोचा था...


अपने  उस कतरे की ढूंढ में, न जाने कितनी परतें हटीं...
 
कुछ थीं हलकी और कुछ भारी, कुछ बुरी पर कुछ प्यारी...

वो कड़वी भी थीं और वो थीं मीठीं भी... खट्टी भी और कुछ कसैली भी...

पर थी तो ये सब मेरी हीं... इन परतों के अन्दर बाहर,

इन्हीं परतों के ऊपर नीचे... बस ढूंढती रह जाऊँगी ज़िन्दगी भर...

कब ऐसा मैंने सोचा था... क्या क्या और कैसा कैसा मैंने सोचा था...
 

No comments:

Post a Comment