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Monday, February 24, 2014

आँकी बाँकी पटरियों पर लहराती ट्रेन कि छुक छुक... अपनी पोटली में यादों का टोकरा संजोये बैठी है... गर्मी कि छुट्टियों में कोलकाता का सफ़र...कुछ एक महीने पहले से प्लानिंग और कुछ मुंगेरी लाल के से मीठे मीठे ख़्वाबों ख़यालों में डूबे पल...शादी के बाद नयी नयी दुल्हन बन मेहँदी से रंगे हाथ और शाखा पोला, बिछिया पहने, ससुराल का पहला सफ़र, कुछ excited, कुछ nervous... और अभी एकाध साल पहले कॉलेज के बच्चों संग मुम्बई की कुछ अलग सी मस्ती भरी इक यात्रा... तरह तरह के लोग... हर किसी कि अपनी ही वजह इस सफ़र पर निकल पड़ने कि... ये पोटली कुछ बढ़ती घटती रहती है... कुछ धुंधलाती यादें सरक कर कहीं ग़ुम हो जाती हैं कभी... और कुछ नयी सी यादें जुड़ती चली जाती हैं...
सुबह सुबह...तेज़ दौड़ती ट्रैन कि खिड़की से झाँक  रही हूँ बाहर...सफ़ेद मज़ेदार धुंध, रुई के फाहों सी... पूरा पूरा खेत निगल कर बैठी है... डकार भी नहीं भरती!

बड़े बड़े ट्रांसफॉर्मर्स... हरी हरी नन्हीं घास और कुछ मीडियम से साइज़ के दरख्तों को कुछ आधा अधूरा सा चाँपे ढाँके, इतरा रही है धुंध...कुछ हठीली झाड़ियाँ कभी ऊपर, नीचे, दायें, बायें से झाँकने कि कोशिश में हैं... और कभी इक झलक दिखती हैं तो इक अल्हड़ सी खिलखिलाहट से समां भर देती हैं...