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Thursday, March 21, 2013

aazaadi...


क्या आज़ाद हूँ मैं?
क्यूँ दफ़्तर से घर लौटते हुए कनखियों से देखती हु के साथ राह पर ये कौन चल रहा है?
क्यूँ अनायास ही क़दम तेज़ हो जाते हैं और दिल की धडकनें भी रफ़्तार पकड़ लेतीं हैं?
क्यूँ हर इक आदमी अपनी मर्दानगी मुझे ही बेईज्ज़त कर ही क़ायम करना चाहता है?
क्यूँ मेरा अँधेरे के बाद सड़क पर निकलना उन वहशी जानवरों के लिए इक पयाम मान लिया जाता है?
क्यूँ मनचाही जगह जा नहीं सकती?
क्यूँ मनचाहे कपड़े पहनूँ तो तब्सिरा ही नसीब होते हैं?

कैसे कह दूँ कि आज़ाद हूँ मैं?

hey girl!


It’s a strange feeling...it is...
To feel weak, scared and threatened...
To not be able to do anything...
To be gripped by fear...
When you need permission from the ‘society’ to step out...
When you need approval for every new piece of clothing you buy, from the ‘society’...
It’s strange when a stranger can ogle at you, and you are blamed...
It’s strange when someone grabs your hand, waist, hips or breasts, only you are blamed...
It’s strange when your cries for help are muted by the loud cacophony of self righteous patrons of the ‘society’....
You can’t blame them for treating you this way... it didn’t even want you born, girl... how can it let you live...

Wednesday, March 20, 2013

Main - 2


मुझमें थोड़ा सा मैं रहने दो....
मेरी उड़ानों को मत यूँ रोको...
ख़ुल के उड़ने की चाहत है इन अरमानों की...
रीत रिवाज़ों की कड़ियों में मत बाँधो इनको...
तोड़ इन्हें वो उड़ जाएंगे, ख़ाली उन हाथों की लकीरें तब ताकोगे...
काश अगर यूँ कस के बाँधा ना होता, आँगन आज फ़िर सूना ना होता...
भीगी भीगी उन पलकों में ख़ुशियों वाली ही नमी होती...
उस कोने वाले कमरे में सिसकी नहीं शायद इक किलकारी होती...
मातम सी रुसवा ना होती हवाएँ, खिलखिलाते घर के ड्योढ़ी-दरवाज़े...
बंटते फ़िर मोहल्ले में लड्डू या फिर पेड़े, चख़ के उसको बूढ़ी दादी फिर मुस्काती...
जो ग़र मुझमें थोड़ी सी भी मैं रह जाती... 

"Main"


मुझमें थोड़ा मैं भी रहने दो... चलते - चलते ग़र कभी गिर जाऊं तो ख़ुद ही उठ लेने दो... कुछ मेरी भी ग़लतियाँ ख़ुद मुझे ही कर लेने दो... उन ग़लतियों को सुधारने की इक कोशिश भी कर लेने दो... 

दम है मुझमें इतना की ख़ुद संभल सकती हूँ मैं भी... हर तेरे क़दम से क़दम मिला चल सकती हूँ मैं भी... 
तेरी इजाज़त की मोहताज नहीं अब, ख़ुद अपनी मनमानी कर सकती हूँ मैं भी... 

ये शुरुआत है अब मेरी उड़ान की... बनाने लगी हूँ अब अपनी पहचान भी... अपने "मैं" को सींच रही हूँ, ख़ुश होती हूँ देख इसकी मुस्कान भी...

Friday, March 8, 2013

let me be me


आज़ाद हवाओं सी खुले आसमाँ में उड़ने की तमन्ना है... खुल के हँसने और कभी रो लेने की तमन्ना है... जब बाँधें कोई बेड़ियाँ हाथों और पैरों में... उन्हें तोड़ के चल देने की तमन्ना है... 

कहते हो ग़र प्यार तुम्हें है मुझसे... मेरी भी फिर कुछ कहने की तमन्ना है... 

प्यार करो तो मुझसे करो... क्यों काट छाँट के उसी साँचे में ढाल रहे हो मुझे... क्यों खींच तान के उसी फ़र्मे पर चढ़ा रहे हो मुझे... 

जैसी हूँ वैसी ही रहने की तमन्ना है...

Wednesday, March 6, 2013

khwaahishein aur ummeedein


ख्वाहिशों के ग़र पंख होते... तो उड़ जातीं वो भी उम्मीदों के आसमाँ में... 
और मैं भी हाथ बढ़ा कर खींच तान कर लटक जाती उसके लहराते चोगे से... 
मुट्ठी में मेरी भी आ जाता थोडा सा आसमाँ... 
सुनहरे उस सूरज की आँखों में मैं भी झाँक लेती इक बार