Search This Blog

Thursday, October 31, 2013

kisse kahaniyon ki ik jheeni si chaadar...

परियों की, शहज़ादों की… महलों की, बाग़ानों की बुनती उधड़ती दुनिया थी इक… सुबह थी गाती और रात महकती…शायद रात कि रानी का इक झाड़ था सिरहाने वाली खिड़की पर…

रोज़ रात कुछ नये से किस्सों कि चादर बुनती थीं अम्मां… और उस मीठी मुलायम सी चादर के ग़र्म सेंक तले जनवरी कि सर्द रातें भी गुज़र जाती थीं बस यूँ ही… बरसों उस चादर में लिपटे काट लिए मैंने…

जाने क्यूँ आज ये लगता है कि अम्मां के उन किस्से कहानियों कि चादर के रेशे कुछ कमज़ोर हो चले हैं और वो चादर कुछ झीनी सी हो गई है…

कोई शहज़ादा किसी परी के पँख काटता है क्या भला…

Monday, October 28, 2013

umeed...

उस कश्ती में सवार हैं हम… के क़दम किसी ओर भी बढ़ें… ये हवा के रुख़ पर है के हम किधर को बह चले… 
यूँ तो हर ओर नज़र है नज़ारे समंदर के ही…पर उम्मीद यही है के मझधार को किनारा ज़रूर मिले… 
उस तिनके कि तलाश है हर लम्हा हमें, जो इस डूबते से राही को, थोडा ही सही पर सहारा तो दे… 
पैग़ाम लिए नयी सी इक ज़िन्दगी का…तिनका भी आये तो उम्मीदों का इक सैलाब सा नज़र आता है… 
इस सैलाब में मगर, ऐ हमदम, डूब भी गए अगर तो वही सही… 
शायद यही मुक़द्दर था जो बंद मुट्ठी में लिए हम इस दुनिया में थे आये…

Friday, October 25, 2013

Khuda bhi Bhagwaan bhi...

राम और रहीम की इस आपा धापी, कश्म कश में मज़हब और धर्म ही तो है जो शिक़स्त खा  लम्हा हर पल… लड़ते लड़ते भूल गए हैं कि आखिर लड़ाई का मक़सद ही क्या था…

बेमतलब हो चला है ख़ुदा भी और भगवान् भी… 
सियासती शतरंज का बस एक अदना प्यादा सा… ख़ुदग़र्ज़ी और आपसी रंजिशों की बिसात पर धीमी सी, सहमी हुई, ग़ैर मतलब, बेमानी सी चाल चलता कुछ अकेला पड़ गया है वो… 

जाने कब अक्ल आएगी बन्दे को कि क़ाफ़िर और को कहने चला… अरे नाचीज़ खुद अपने गिरेबान में भी तो झाँका होता…


Thursday, October 24, 2013

Kinaare aur manzilein hain kai...

किनारे की ओर बढ़ तो रहे हैं पर मंजिल समझ नहीं आती… उस पार पहोंच कर भी कुछ ढूंढते रहते हैं… 

सोच रहे हैं अब क्या… सोच रहे हैं अब किस ओर… मुड़ कर देखें पीछे तो किनारे कई किये फ़तेह पर मंजिल का अब भी अता पता नहीं… हर मझधार पार कर जब उस पार पहोंचते हैं तो एक ही सवाल तैर कर उबरता है…

अब आगे क्या…अब आगे क्या?

On Memories and Moving On!

यूँ ही कभी… वक़्त की ऊँगली थामे… चलते चले जा रहे हैं…

फ़िक्र कुछ कम ही है…

उम्मीदों की टोकरी सर पर रखे… इक छोटी सी पोटली यादों की, बगल में दबाये…
सब से छुपाये, बस मस्त मलंग से चले जा रहे हैं…

कल क्या होगा… उस पार कौन है बैठा…
पीछे कौन है छूटा… कौन है जो ले रहा टोह मेरी… अब कोई मायने नहीं हैं इसके…
बस चलते चले जा रहे हैं… बस चलते चले जा रहे हैं…