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Thursday, May 14, 2015

खेल खिलौने सब अब कुछ obsolete से हो गए हैं...
गुड्डे गुड़ियों की अब शादी नहीं हुआ करती...दावतें भी नहीं होतीं
प्लास्टिक के कप प्लेट में झूठ मूठ की चाय भी परोसी नहीं जाती
पागलों की तरह पुरज़ोर दौड़कर दीवारों को छू लेने की होड़ भी अब नहीं लगती
रस्सा नहीं कूदते, सीमेंट के ढले खुरदुरे फर्शों पर स्टापू के नक़्शे भी अब कहाँ आंके जाते हैं...
अम्मा बाऊजी दोपहर में जब ऊंघा करते हैं,
नन्हे नंगे पाँव चोरी चोरी आम के बागान की ओर कहाँ दौड़ा करते हैं
रेत के टीलों में हाथ मिलाने को सुरंगें कहाँ खोदी जाती हैं...
टेनिस की पीली नर्म गेंदों से कहाँ अब cricket खेली जाती है...
बिना सीढ़ी के चारदीवारी के सहारे छत पर चढ़ कर गेंद ढूंढकर अब कोई नहीं लाता...
दोस्तों से तकरार और सहेलियों के रूठने मनाने की आवाज़ें भी अब खामोश सी है...
न शाम की रौनक है, न किलकारियाँ, न खेलने की permission के लिए मिन्नतें होती हैं माँ से...
घर की दीवारों में बंद होकर... सब दुनिया से मुखातिब होते हैं...दुनिया से अलहदा होकर
भई आजकल facebook, whatsapp, videos और smart phones का दौर आ गया है...
अब वही दोस्त, वही हमदम और वही timepass हुआ करता है...

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