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Monday, May 11, 2015

माँ

एक दिन काफी नहीं पड़ता, क्या करूँ माँ।
कैसे बस एक दिन तेरे नाम का मान लूँ मैं माँ।
तुझसे मैंने हंसना सीखा, ख़ुशी हो या हो ग़म।
तुझसे मैंने जीना सीखा, कैसा भी हो मौसम।
तेरे हर रूप को पाया स्नेहिल बरखा से भरपूर।
तू याद बहोत आती है अब, जो अब तू इतनी है दूर।
डांट भी तेरी अब आती है याद हर पल,
जैसे मीठा मीठा एक मेह अभी बरसा हो कल।
गुस्सा मैं करती थी तुझ पर
रूठा भी करती थी तुझसे
हुक्म चलाती, वो भी तुझ पर
सारे हठ बस थे तुझसे।
सब हठ छोड़ मैं दूंगी अब माँ
अब मनमानी भी न करुँगी
कोई हुक्म न चलाऊंगी
अब अच्छी बन कर रहूंगी माँ
बस मेरे पास रह जाओ अब तुम
दूर कहीं न जाओ अब तुम
तेरी ठंडी छांव में रहने दे माँ
ये भी मेरा हठ ही है माँ
रहना है तेरे ही साये में माँ।
एक दिन कम पड़ता है माँ क्या करू?
मेरे तो हर दिन हर पल में बस तू ही बस तू।

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