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Friday, May 8, 2015

मेरे घर का चिराग़ था वो... बुझ गया बरसों हुए
नाली का कीड़ा...गली का कुत्ता...क्या न कहा उसे
सर पर छत न थी...पर मेहनत से न कतराता था वो
खुले आसमान की काली स्याह चादर ओढ़े सोता था वो
सर्दी के कंटीले तार हों चाहे या हो गर्म हवा की लपटें सीं
मेहनत उसकी ख़ालिस थी... रोटी खरा थी सोना...
नशा शराब का था? याकि मोटी मोटी जेबों का?
बड़ी गाड़ी थी? या बड़ा उसका ग़ुरूर था?
नशे में वो था चूर और किये मेरे सपने उसने चकनाचूर...
ख़त्म हुआ सब जब, तब भी हया न आई उसे...
वो कायर कातर मुँह छुपा के भागा
और मेरा लाल? उसे ढकने को कफ़न भी ना मिला..
गुनाह था उसका माना की वो footpath पर था सोया..
पर सज़ा - ए - मौत तो उसका मुक़ाम ना था...
सालों से मुँह बाये उस इंसाफ़ के तराज़ू से उम्मीदें लगाये बैठी थी
टूटी उम्मीदों के टुकड़ों को अब आंसुओं के पोंछे से इकठ्ठा कर रही हूँ
मेरे घर का चिराग़ बुझ गया है कम्बख्तों
यूँ दीवाली तो ना मनाओ...
मेरा दामन खाली हो गया है हैवानों
यूँ खुशियाँ तो ना मनाओ...
मेरा घर सूना हो गया है ओ बेगैरतों
यूँ पटाखे तो ना छुड़ाओ...
उस के चले जाने का सोब नहीं जो तुम्हें
खुशियों के धमाके में उसकी मौत को बेइज़्ज़त ना करो...
मिटटी के नीचे आज भी तड़पता है वो...
अब तो उसे सो लेने दो ऐ "इंसानों"...

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