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Thursday, April 4, 2013

parchhai

नेमत, रहमत और थोड़ी सी नज़ाकत बख्शी ख़ुदा ने...
तो उभरी औरत की सी इक परछाई...
उसने भी था मुझको नाज़ों से फ़िर रखा...
सूने से उसके आशियाँ में फूँक कर जान...
बना दिया था उसे इक गुलिस्ताँ...
कुछ बंधता, कुछ सिमटता, कुछ बनता और कुछ संभलता सा लगता था अब...
हुआ क्या फिर जाने जो इस बगिया में पड़ गया अकाल...
लाड़ नहीं था अब थी नफ़रत चारों ओर...
कचोट कचोट खाने लगे वो बदनुमा साए मुझको...
ना थी ये तो किस्मत मेरी...
पर अब दर ड्योढ़ी सब मुंह बाये करते हैं खामोश सवाल...
जवाब नहीं है अब तो कुछ भी बस गलता, सड़ता ढाँचा है...
खाली सूनी आँखों से मुझको घूरा करता है...
निर्भया कहो या वीरा मैं तो अब इक परछाई हूँ...
जीने की इक कोशिश थी...
अब तुम्हारे जाग उठने का अरमान है...

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