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Wednesday, July 29, 2015

बंद मुट्ठियों के बेमाने पल...

बचपन में कभी सुना था की बंद सीपियों में मोती मिला करते हैं... गहरे समंदर में डुबकी लगाकर गोताखोर इन्हें ढूंढ कर लाया करते हैं... तबसे हर चीज़ को मुट्ठी में भींच कर उसकी कीमत बढ़ाने की कोशिश में हूँ...

वक़्त को भींचा था एक बार, खोला तो यादें बन कर उड़ गया... रुका नहीं कहीं... बचपन को क़ैद करने की कोशिश की, खोला तो मासूमियत में कुछ सिलवटें आ गईं... जवानी को भी बहोत रोका, खोला तो पाया इसमें भी अब  गहरी झुर्रियाँ पड़ गईं थीं... खिलखिलाती हंसी को मुट्ठी में भर लेने की भी की थी कोशिश... अब सिर्फ ख़ाली सी इक गूँज सुनाई पड़ती है... कभी कभी

वक़्त पर मुट्ठी खोलना सीख लिया है अब मैंने... हर लम्हे को जीना रास आने लगा है...

बंद मुट्ठियों की अब हमें दरकार कहाँ?

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