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Thursday, October 31, 2013

kisse kahaniyon ki ik jheeni si chaadar...

परियों की, शहज़ादों की… महलों की, बाग़ानों की बुनती उधड़ती दुनिया थी इक… सुबह थी गाती और रात महकती…शायद रात कि रानी का इक झाड़ था सिरहाने वाली खिड़की पर…

रोज़ रात कुछ नये से किस्सों कि चादर बुनती थीं अम्मां… और उस मीठी मुलायम सी चादर के ग़र्म सेंक तले जनवरी कि सर्द रातें भी गुज़र जाती थीं बस यूँ ही… बरसों उस चादर में लिपटे काट लिए मैंने…

जाने क्यूँ आज ये लगता है कि अम्मां के उन किस्से कहानियों कि चादर के रेशे कुछ कमज़ोर हो चले हैं और वो चादर कुछ झीनी सी हो गई है…

कोई शहज़ादा किसी परी के पँख काटता है क्या भला…

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