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Thursday, October 24, 2013

Kinaare aur manzilein hain kai...

किनारे की ओर बढ़ तो रहे हैं पर मंजिल समझ नहीं आती… उस पार पहोंच कर भी कुछ ढूंढते रहते हैं… 

सोच रहे हैं अब क्या… सोच रहे हैं अब किस ओर… मुड़ कर देखें पीछे तो किनारे कई किये फ़तेह पर मंजिल का अब भी अता पता नहीं… हर मझधार पार कर जब उस पार पहोंचते हैं तो एक ही सवाल तैर कर उबरता है…

अब आगे क्या…अब आगे क्या?

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