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Friday, March 17, 2017

इक ख़ामोश नुमाईश

कालिख़ स्याही की थी उन काग़ज़ों पर
या की काला काजल कुछ लिख रहा था पन्नों पर
वो पानी की नमी थी या फिर नमक था आँसुओं का
उस बहाव में कुछ गल गया कुछ फट गया
कुछ आग पर सेंका सहेजा और कुछ जल गया

तपिश में पककर जो काग़ज़ सूखा था
आज भी दामन में कहीं बांधे रखा है
कभी उस पुड़िया को खोलकर देख भर लेने का मन भी होता है
तो सहम कर वापस दबा देती हूँ
कहीं इस ख़ामोश नुमाईश की आग में जलकर राख़ न हो जाए

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