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Thursday, December 3, 2015


ताँती का ताँत, जुलाहे का करघा.
ऊपर नीचे करते, इधर उधर खट खट करते 
आपस में कुछ बातें सी किया करते हैं...

क्या तेरा ताँती तेरे मोह में दिनभर काम किया करता है?
क्यों रे? तेरा भी जुलाहा तो ऊँघते ऊँघते तेरा ही नाम जपता है 
ताँत शर्मा कर लाल हुआ और करघा बड़ी शान से फूल गया.

जाने नासमझ कब समझेंगे, 
ये न ताँत का लगाव है और न ही करघे से कोई प्रेम, 
ये तो निन्यानवें का फेर है...

क्या ही ताँती, क्या ही जुलाहा, 
क्या ही बेचने वाला, क्या ही खरीदने वाला...
सब उलझे हैं गिनती की गाँठों में... पर ये फेर मुआ पूरा ही नहीं होता...

An observation, a commentary on the rampant materialism where we are lost in the hundreds and thousands even as we forget to enjoy the numbers that lie somewhere in the middle...

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