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Monday, February 24, 2014

सुबह सुबह...तेज़ दौड़ती ट्रैन कि खिड़की से झाँक  रही हूँ बाहर...सफ़ेद मज़ेदार धुंध, रुई के फाहों सी... पूरा पूरा खेत निगल कर बैठी है... डकार भी नहीं भरती!

बड़े बड़े ट्रांसफॉर्मर्स... हरी हरी नन्हीं घास और कुछ मीडियम से साइज़ के दरख्तों को कुछ आधा अधूरा सा चाँपे ढाँके, इतरा रही है धुंध...कुछ हठीली झाड़ियाँ कभी ऊपर, नीचे, दायें, बायें से झाँकने कि कोशिश में हैं... और कभी इक झलक दिखती हैं तो इक अल्हड़ सी खिलखिलाहट से समां भर देती हैं...

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