मुझमें थोड़ा सा मैं रहने दो....
मेरी उड़ानों को मत यूँ रोको...
ख़ुल के उड़ने की चाहत है इन अरमानों की...
रीत रिवाज़ों की कड़ियों में मत बाँधो इनको...
तोड़ इन्हें वो उड़ जाएंगे, ख़ाली उन हाथों की लकीरें तब ताकोगे...
काश अगर यूँ कस के बाँधा ना होता, आँगन आज फ़िर सूना ना होता...
भीगी भीगी उन पलकों में ख़ुशियों वाली ही नमी होती...
उस कोने वाले कमरे में सिसकी नहीं शायद इक किलकारी होती...
मातम सी रुसवा ना होती हवाएँ, खिलखिलाते घर के ड्योढ़ी-दरवाज़े...
बंटते फ़िर मोहल्ले में लड्डू या फिर पेड़े, चख़ के उसको बूढ़ी दादी फिर मुस्काती...
जो ग़र मुझमें थोड़ी सी भी मैं रह जाती...
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