क्या आज़ाद हूँ मैं?
क्यूँ दफ़्तर से घर लौटते हुए कनखियों से देखती हु के साथ राह पर ये कौन चल रहा है?
क्यूँ अनायास ही क़दम तेज़ हो जाते हैं और दिल की धडकनें भी रफ़्तार पकड़ लेतीं हैं?
क्यूँ हर इक आदमी अपनी मर्दानगी मुझे ही बेईज्ज़त कर ही क़ायम करना चाहता है?
क्यूँ मेरा अँधेरे के बाद सड़क पर निकलना उन वहशी जानवरों के लिए इक पयाम मान लिया जाता है?
क्यूँ मनचाही जगह जा नहीं सकती?
क्यूँ मनचाहे कपड़े पहनूँ तो तब्सिरा ही नसीब होते हैं?
कैसे कह दूँ कि आज़ाद हूँ मैं?
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