Search This Blog

Saturday, May 25, 2019

क़िस्सा उस आम सी सुबहो का...

उस दिन बहोत मायूस थी... क़िस्सा भी कुछ अजीब ही था।

ये पहली बार ही था कि मैंने दिल टूटने का दर्द महसूस किया था।

औंधी पड़ी बिस्तर पर अपना तकिया गीला कर रही थी।

जब घंटी बजी तो चौंकी तो ज़रूर थी मगर हिलने तक की हिम्मत नहीं थी... ढींठ की तरह ज्यूँ की त्यूँ पड़ी रही।

माया ने ही दरवाज़ा खोला... कुछ हल्का हल्का सुनाई तो पड़ रहा था पर कुछ भी सुनने समझने का मन‌ नहीं था।

उसकी पायल की छन-छन पास आते आते मेरे दरवाज़े पर ही आकर रुकी... मैं फ़िर भी नहीं हिली।

"दीदी..." यूं तो माया की खनकती आवाज़ मुझे बेहद पसंद है... ख़ासकर जब सफ़ाई करते हुए वो अपने गाँव का कोई शायद जातीय गाना गुनगुनाया करती है... पर आज मैं झुंझला रही थी...

मैंने कुछ जवाब नहीं दिया...वैसी ही पथराई पड़ी रही।

"दीदी..." अब कुछ संकोच से या फ़िर शायद डरते डरते  माया ने एक बार फिर आवाज़ दी... "देखो तो! आओ ना एक बार बाहर... कुछ है... शायद तुम्हारे लिए..."

"क्या है! रखो ना उधर ही!" माया की बात काटकर, मैं झल्लाते हुए बोली।

उसने फिर एक बार आवाज़ दी "...पर दीदी...एक बार तो आओ ना!" मेरे चिल्लाने पर भीआज उसकी आवाज़ में नाराज़गी नहीं आई। उल्टे उसकी आवाज़ कुछ मुस्कुराहट से भीगी थी।

मैं जैसी लेटी थी वैसी ही उठ खड़ी हुई, फैला हुआ काजल अपनी बाँह पर पोंछती हुई, ज़मीन पर पड़ी चादर को रौंदते हुए मैंने चप्पलों में पैर डाले और माया की ओर गुस्से से देखा।

आँचल में मुँह दबाए वो हल्के हल्के हंस रही थी और उसे यूँ देखकर मेरा पारा और चढ़ गया।

कुछ बुदबुदाती, पैर पटकती एक ज़िद्दी बच्चे की तरह मैं बाहर वाले कमरे में पहुंची...

कुछ तीन फुट लंबा फूलों का गुलदस्ता मेज़ पर रखा था। और मेरा मुँह ताक रहा था!

आँसू अभी भी चमक रहे थे पलकों पर... लेकिन होंठों को मुस्कुराना याद आ ही गया...

Wednesday, December 5, 2018

याद है मुझको...

याद है मुझको...
याद है मुझको जाड़ों की इक सुबहो...
जब पुरानी कुछ यादों के सफहों को मैं झाड़ रही थी।
वक्त़ की जमी हुई थी काई...
रगड़ मांज कर पोंछ रही थी।
याद है मुझको...
यकायक जाने क्यूं बस ज़ोर लगाकर...
घिसने बैठ गई उन नाज़ुक सफहों को।
सोच रही थी...
उम्मीदों का जिन्न हाज़िर हो जाए शायद।
याद है मुझको...

Friday, March 17, 2017

इक ख़ामोश नुमाईश

कालिख़ स्याही की थी उन काग़ज़ों पर
या की काला काजल कुछ लिख रहा था पन्नों पर
वो पानी की नमी थी या फिर नमक था आँसुओं का
उस बहाव में कुछ गल गया कुछ फट गया
कुछ आग पर सेंका सहेजा और कुछ जल गया

तपिश में पककर जो काग़ज़ सूखा था
आज भी दामन में कहीं बांधे रखा है
कभी उस पुड़िया को खोलकर देख भर लेने का मन भी होता है
तो सहम कर वापस दबा देती हूँ
कहीं इस ख़ामोश नुमाईश की आग में जलकर राख़ न हो जाए

Wednesday, April 13, 2016

What's the rush?

We rush, rush to get up before the maid rings the bell. We rush, rush to get the breakfast on the table. We rush, rush to pack up the lunch. We rush, rush to get dressed. We rush…

We rush, rush to get fatter bank accounts. We rush, rush to complete the checklists. We rush, rush to meet deadlines. We rush, rush to reach our goals. We rush, rush to the myriad meetings. We rush…

In all this rush and all the hooha about earning for a living, when do we begin living? 

We forget, it is a festival today. We forget, it is a special day. We forget, we have a family waiting for us at home. We forget, for whom we rush. We forget…


Monday, March 21, 2016

मेरी आदत हो तुम...

हाँ तुम मेरी आदत हो...
पर हर आदत बुरी तो नहीं हुआ करती!
मेरी सुबह होती ही है तुम्हारे आने की आस से...
उठने का सबब हो मकसद हो अब तुम...
हाँ मेरी आदत हो तुम...

जब तवा चढ़ाती हूँ gas पर,
तुम्हारी भी तीन रोटियाँ साथ गिनती हूँ,
चाहे तुम घर पर खाओ के ही खाओ...
हाँ सच मेरी आदत हो तुम...

जब घड़ी के काँटे शाम को छह बजाते हैं,
अनायास कदम मेरे चल पड़ते हैं तुम्हें जगाने...
भले वो कमरा खाली ही क्यों हो...
हाँ मेरी आदत ही तो हो तुम...

रात को सोने जाती हूँ जब,
बिस्तर पर जगह तुम्हारी छोड़ कर सोती हूँ,
भले रात भर आओ के आओ तुम,
हाँ मेरी आदत हो गए हो तुम...

सुबह नहाकर तैयार जब होती हूँ,
जबरन इर्द गिर्द मंडराती हूँ,
इत्र की खुशबू, या क़दमों की आहट से भले नींद न टूटे तुम्हारी...
पर तुम मेरी आदत हो...


Thursday, December 3, 2015


ताँती का ताँत, जुलाहे का करघा.
ऊपर नीचे करते, इधर उधर खट खट करते 
आपस में कुछ बातें सी किया करते हैं...

क्या तेरा ताँती तेरे मोह में दिनभर काम किया करता है?
क्यों रे? तेरा भी जुलाहा तो ऊँघते ऊँघते तेरा ही नाम जपता है 
ताँत शर्मा कर लाल हुआ और करघा बड़ी शान से फूल गया.

जाने नासमझ कब समझेंगे, 
ये न ताँत का लगाव है और न ही करघे से कोई प्रेम, 
ये तो निन्यानवें का फेर है...

क्या ही ताँती, क्या ही जुलाहा, 
क्या ही बेचने वाला, क्या ही खरीदने वाला...
सब उलझे हैं गिनती की गाँठों में... पर ये फेर मुआ पूरा ही नहीं होता...

An observation, a commentary on the rampant materialism where we are lost in the hundreds and thousands even as we forget to enjoy the numbers that lie somewhere in the middle...
झीना झीना ताना बाना, जुलाहा यूँ ही बुनता रहा
रंगों संग बतियाता रहा और तागे संग इश्क़ लड़ाता रहा
अपने ही छुटपन के किस्से रंगों में उड़ेंल दिए
रस सब अपने जीवन के तागों में थे बुन दिए

कोई था सूती, कोई खादी और कोई था रेशम 
इक अलग एहसास, इक अलग आस इन सबसे थी बस हरदम 
जुलाहे की थी हर इक के संग अपनी ही कहानी
जो करघे से उतर कर हाट में थी जानी
इस कपड़े को जब मैंने कीना
लगा मुझे वो जाना चीना
पढ़ी मैंने भी जुलाहे की प्रेम कहानी
रंगों और तागों की ही ज़ुबानी