झीना झीना ताना बाना, जुलाहा यूँ ही बुनता रहा
रंगों संग बतियाता रहा और तागे संग इश्क़ लड़ाता रहा
अपने ही छुटपन के किस्से रंगों में उड़ेंल दिए
रस सब अपने जीवन के तागों में थे बुन दिए
कोई था सूती, कोई खादी और कोई था रेशम
इक अलग एहसास, इक अलग आस इन सबसे थी बस हरदम
जुलाहे की थी हर इक के संग अपनी ही कहानी
जो करघे से उतर कर हाट में थी जानी
इस कपड़े को जब मैंने कीना
लगा मुझे वो जाना चीना
पढ़ी मैंने भी जुलाहे की प्रेम कहानी
रंगों और तागों की ही ज़ुबानी
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