याद है मुझको...
याद है मुझको जाड़ों की इक सुबहो...
जब पुरानी कुछ यादों के सफहों को मैं झाड़ रही थी।
वक्त़ की जमी हुई थी काई...
रगड़ मांज कर पोंछ रही थी।
याद है मुझको...
यकायक जाने क्यूं बस ज़ोर लगाकर...
घिसने बैठ गई उन नाज़ुक सफहों को।
सोच रही थी...
उम्मीदों का जिन्न हाज़िर हो जाए शायद।
याद है मुझको...
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