उस दिन बहोत मायूस थी... क़िस्सा भी कुछ अजीब ही था।
ये पहली बार ही था कि मैंने दिल टूटने का दर्द महसूस किया था।
औंधी पड़ी बिस्तर पर अपना तकिया गीला कर रही थी।
जब घंटी बजी तो चौंकी तो ज़रूर थी मगर हिलने तक की हिम्मत नहीं थी... ढींठ की तरह ज्यूँ की त्यूँ पड़ी रही।
माया ने ही दरवाज़ा खोला... कुछ हल्का हल्का सुनाई तो पड़ रहा था पर कुछ भी सुनने समझने का मन नहीं था।
उसकी पायल की छन-छन पास आते आते मेरे दरवाज़े पर ही आकर रुकी... मैं फ़िर भी नहीं हिली।
"दीदी..." यूं तो माया की खनकती आवाज़ मुझे बेहद पसंद है... ख़ासकर जब सफ़ाई करते हुए वो अपने गाँव का कोई शायद जातीय गाना गुनगुनाया करती है... पर आज मैं झुंझला रही थी...
मैंने कुछ जवाब नहीं दिया...वैसी ही पथराई पड़ी रही।
"दीदी..." अब कुछ संकोच से या फ़िर शायद डरते डरते माया ने एक बार फिर आवाज़ दी... "देखो तो! आओ ना एक बार बाहर... कुछ है... शायद तुम्हारे लिए..."
"क्या है! रखो ना उधर ही!" माया की बात काटकर, मैं झल्लाते हुए बोली।
उसने फिर एक बार आवाज़ दी "...पर दीदी...एक बार तो आओ ना!" मेरे चिल्लाने पर भीआज उसकी आवाज़ में नाराज़गी नहीं आई। उल्टे उसकी आवाज़ कुछ मुस्कुराहट से भीगी थी।
मैं जैसी लेटी थी वैसी ही उठ खड़ी हुई, फैला हुआ काजल अपनी बाँह पर पोंछती हुई, ज़मीन पर पड़ी चादर को रौंदते हुए मैंने चप्पलों में पैर डाले और माया की ओर गुस्से से देखा।
आँचल में मुँह दबाए वो हल्के हल्के हंस रही थी और उसे यूँ देखकर मेरा पारा और चढ़ गया।
कुछ बुदबुदाती, पैर पटकती एक ज़िद्दी बच्चे की तरह मैं बाहर वाले कमरे में पहुंची...
कुछ तीन फुट लंबा फूलों का गुलदस्ता मेज़ पर रखा था। और मेरा मुँह ताक रहा था!
आँसू अभी भी चमक रहे थे पलकों पर... लेकिन होंठों को मुस्कुराना याद आ ही गया...
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