उस कश्ती में सवार हैं हम… के क़दम किसी ओर भी बढ़ें… ये हवा के रुख़ पर है के हम किधर को बह चले…
यूँ तो हर ओर नज़र है नज़ारे समंदर के ही…पर उम्मीद यही है के मझधार को किनारा ज़रूर मिले…
उस तिनके कि तलाश है हर लम्हा हमें, जो इस डूबते से राही को, थोडा ही सही पर सहारा तो दे…
पैग़ाम लिए नयी सी इक ज़िन्दगी का…तिनका भी आये तो उम्मीदों का इक सैलाब सा नज़र आता है…
इस सैलाब में मगर, ऐ हमदम, डूब भी गए अगर तो वही सही…
शायद यही मुक़द्दर था जो बंद मुट्ठी में लिए हम इस दुनिया में थे आये…
बहुत सही
ReplyDeleteसादर
shukriya...
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