चाय की चुस्कियाँ लेते थे college के बाहर, बड़ी बड़ी discussions किया करते थे...मिलते थे कुछ यार दोस्तों से बस यूँ ही वक़्त काटने को या फिर कभी कुछ अच्छा वक़्त गुज़ारने को...सोफे पर पड़े पड़े उस पुरानी क़िताब को ही कुछ सत्रहवीं बार पढ़ते थे...बाबा के office चले जाने के बाद अखबार खोलकर एक एक पन्ना चाट जाते थे...माँ को kitchen में जाकर पूछते... बस! यही बना है आज? Please वो भिन्डी वाली सब्जी बना दो ना माँ आज! दोपहर को एक छोटी सी, मीठी सी नींद का मज़ा, शाम को यारों की टोली फिर से...वक़्त काटने गुज़ारने को क्या क्या options थीं!
Options तो अब भी हैं... बहोत सारी हैं... पर वक़्त कहाँ गया कौन जाने?
मुट्ठी में ही तो था हमारी! शायद कहीं उँगलियों के बीच से फिसल कर निकल गया...
बंद मुट्ठी को जब हलके से खोला तो बस खालीपन ही मिला...
लकीरों को देखती हूँ...हाथ को उलट पलट कर भी देख लिया...
यार पता ही नहीं चला कहाँ गया!
वक़्त ऐसा ही होता है।
ReplyDeleteसादर
Kuchh fisalta kuchh dhalta kuchh reshmi kuchh khurdura sa waqt aisa hi hota hai....
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