क्या चाहा था मैंने तुमसे, इक कतरा मेरा अपना ही,
जो वो भी मुझे नसीब न होगा, कब ऐसा मैंने सोचा था…
कब की प्यासी हूँ क्या जानूं, अब तो वो भी याद नहीं…
समंदर से प्यास बुझाने की इक कोशिश की…
पर भूल गई थी की वो तो खारा है…
ऐसा पानी भी क्या पानी,
के पीकर जिसको खुद जल जाऊं मैं ही…
क्या कहूँ, किसको समझाऊं…
क्या… कैसा मैंने सोचा था…
अपने उस कतरे की ढूंढ में न जाने कितनी परते हटीं…
कुछ हलकी, कुछ भारी, कुछ बुरी पर कुछ प्यारी…
वो कड़वी भी थी और वो थी मीठी भी, खट्टी भी और कसैली भी…
पर थी तो सब हाँ मेरी ही…
इन परतों के अन्दर बाहर,
इन्ही परतों के ऊपर नीचे,
बस ढूंढती ही रह जाऊँगी ज़िन्दगी भर…
कब ऐसा मैंने सोचा था…
क्या क्या… और कैसा कैसा मैंने सोचा था…
nice one...keep it up!!
ReplyDeleteThanks Abhas!
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