भागती उन पटरियों पर जब रेलगाड़ी में बैठ, यूँ ही कभी मन भटकने लगता है... सोचती हूँ कभी कभी... दौड़ रही है रेल या फिर शायद ये पटरियाँ... चलती हूँ जब तपती जलती सड़कों पर तब अक्सर ये ख़याल आता है क्या मैं इन सड़कों पर चल रही हूँ...या फिर ये सड़कें मेरी ऊँगली थामे ले चलीं हैं इक अलग ही मंजिल की ओर... शायद मैं भाग रही हम निशदिन खोज में इक मुक़ाम की... या फ़िर शायद वो मुक़ाम ही खुद खींच रहा है मुझे अपनी ओर... ये इक अजब गोरखधंधा है... या फिर है इक पहेली...
अब आलम कुछ ये हैं की ज़िन्दगी ही पूछ बैठी है हम से... बूझो तो जानें...
बूझना बड़ा मुश्किल है :(
ReplyDeleteKoshish Jaari hai Yashwant...
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