एक टुकड़ा आसमान का नोच लूँ मैं भी... छीन लूँ मैं भी... अपनी मुट्ठी में बंद कर रख लूँ मैं भी... जो पूरा खुला आसमान था कभी अपनी नरम बाहों में भर लेता था मुझे…आज बस टुकड़ो में ही दिखता है बस यूँ ही कभी कभी…
झूम कर मदमस्त बादलों मेंभरी उस नशीली मस्ती से जो हर पल इकनयी शरारत करता था कभी… आज बस कुछ थका कुछ मुरझाया सा रहता है…उन बादलों में भी अब नशा कहाँ, है भी तो कुछ ज़हरीला सा… ढीली सी पड़ती हैं अब नसें उसकी…नीले से आसमान का रंग अब सलेटी कुछ बदरंगा सा कुछ दिखता है...
पर अब भी उस एक टुकड़े को देखने रोज़ जाती हूँ बालकनी पर...
ढूंढती हूँ अभी भी उस शरारती हँसी को और उन नरम बाहों के आगोश को… बहोत दिन हुए ठीक से सोई नहीं…
चलो आज फिर उस आसमान को ढूँढने निकलें…शायद थक कर ही कुछ नींद सी आ जाए…
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