जब कभी, यूँ ही कभी मन होता है तुम्हें देखने का...मन भर आता है कभी... आँखें धुंधला जाती हैं.. कुछ यादों के बीच खड़ी बस टटोलती रहती हैं...
न जाने क्या ढूंढती हैं, कुछ कच्चा पक्का सपना था, जो हमने मिल के देखा था, कुछ गीले सूखे शिक़्वे थे जो मैं अक्सर किया करती थी, कुछ सुनहरी नरम सी बातें थी जो हम बांटा करते थे...
कुछ मीठे मीठे उन भुट्टे के दानो से, खट्टी मीठी यादों के वो मोती बिखरे रहते हैं... कभी समेत लेती हूँ तो फिर कभी बिखेर देती हूँ... उन्हीं लम्हों को फिर से जीने की तमन्ना में
क्या हुआ जो इतना नाराज़ हो गए...क्या ग़लती थी मेरी जो सब कुछ मेरा छूट गया...बाँध कर तुम सब साजो सामान मेरी नज़रों से यूँ ओझल होते चले गए...
अब बस कभी कभी यादों की धुंधलाती स्याही में रंगे वो पन्ने उलट पलट लेती हूँ...कुछ पुराने बीते ख़ुशनुमा लम्हे एक बार फिर से जी लेती हूँ... तुम्हें याद भर कर लेती हूँ
ReplyDeleteप्रेम की गहन अनुभूति
सुंदर रचना
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
thanks! I am a member of your blog already...
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर
thanks!
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