ऊँचा करके सर आसमान को ताकते हुए…नीले वसी उस अम्बर की आँखों में आँखें डाले निकल पड़े हैं इक तूफाँ दिल में लिये…
पर उस लम्हे का क्या?
इक लम्हा जो रुक गया वहीँ, उसी की याद का पोटला कंधे पे लादे इसी इंतज़ार में हैं की लम्हा गुज़रे ज़रा, कुछ आगे की ओर क़दम हम भी ले लें
अजब सी पशोपेश में पड़ जाता है जब कभी उस लम्हे से निकल फिर उस आसमां पर नज़र पड़ जाती है कभी, यूँ ही बस गलती से...
पर उस लम्हे का क्या?
इक लम्हा जो रुक गया वहीँ, उसी की याद का पोटला कंधे पे लादे इसी इंतज़ार में हैं की लम्हा गुज़रे ज़रा, कुछ आगे की ओर क़दम हम भी ले लें
अजब सी पशोपेश में पड़ जाता है जब कभी उस लम्हे से निकल फिर उस आसमां पर नज़र पड़ जाती है कभी, यूँ ही बस गलती से...
Can you add references to the world around you (like moving traffic, crowds or flora near you) so people can link their reality with this thought
ReplyDeleteकई दफा ऐसे पशोपेश का सामना करना पड़ता है ... और वो लम्हा ... आह!
ReplyDeleteकुछ यादगार, कुछ मीठे, कुछ खट्टे, कुछ कड़वे और कुछ कसैले...
Deleteगहन अनुभूतियों को सहजता से
व्यक्त किया है आपने अपनी रचना में
सार्थक रचना
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग jyoti-khare.blogspotin
में भी सम्मलित हों ख़ुशी होगी
shukriya...
Deleteaapke sujhaav ke liye shukriya...
ReplyDeleteइंसान जब निराश हो जाता है ,कोई रास्ता दिखाई नहीं देता है, तो वह ईश्वर (आसमां) की और देखने लगता है -इन्सान की नियति है ,
ReplyDeleteLATEST POSTसपना और तुम
ya shaayad aasmaan ko ghoor kar ishwar se kuchh kehna sunna chaahta hai...
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