क्या चाहा था मैने तुमसे, इक कतरा मेरा अपना ही...
जो वो भी मुझे नसीब न होगा, कब ऐसा मैंने सोचा था
कब की प्यासी हूँ क्या जानूँ, अब तो वो भी याद नहीं...
समंदर से प्यास बुझाने चली, भूल गई वो खारा है...
क्या मैं कहूँ किस - किसको समझाऊं... क्या - कैसा मैंने सोचा था...
वो कड़वी भी थीं और वो थीं मीठीं भी... खट्टी भी और कुछ कसैली भी...
पर थी तो ये सब मेरी हीं... इन परतों के अन्दर बाहर,
इन्हीं परतों के ऊपर नीचे... बस ढूंढती रह जाऊँगी ज़िन्दगी भर...
कब ऐसा मैंने सोचा था... क्या क्या और कैसा कैसा मैंने सोचा था...
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