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Monday, August 27, 2012

har mausam ki hai ik khushboo...

हर मौसम की होती है इक ख़ुशबू...

जाड़ों में अलाव की ख़ुशबू, सुलगते गोसों में धीरे धीरे कढ़ती खीर की ख़ुशबू, कोयले की अंगीठी  पर जलते बुझते अंगारों में धीमे धीमे पकती शकरकंदी की ख़ुशबू... बदन पर सरसों का तेल मलकर धुप सेंकते बच्चों की ख़ुशबू... हवा की ये ख़ुशबू कुछ ऐसी के दिल चाहे आँखें बंद कर बस उस खुशबू में हो जाएँ सराबोर हम....

बसंत में कुछ लोहड़ी की आग पर जलते फुल्ले और रेवड़ियां, चिट चिट आवाज़ करते जलते टिल और है खुशबु नई अंकुरित हुई एक पूरी पौध की... अलाव जो अब बुझ गए बुझा दिए गए....अब वहीं उसी जगह पर डालते हैं भंगड़े...नया साल नई उम्मीदों की ख़ुशबू....मीठी मीठी उस सुनहरी सी धूप की ख़ुशबू...अलसाए से सूरज की अंगड़ाई की ख़ुशबू....

बस अभी जागे सूरज की उस घूरती सी नज़र की खुशबू लाती गर्मियाँ...कोसों दूर इक कुएँ घड़े भर भर पानी लाती उन लड़कियों की खिलखिलाती हँसी की ख़ुशबू... टप्प से टपकते उस पसीने की ख़ुशबू...भुने जीरे वाली उस छाछ का इंतज़ार करते उस किसान की ख़ुशबू...बर्फ के रंग बिरंगे गोले की ओर ललचाई उन नज़रों से देखते उस बच्चे की ख़ुशबू....

हल्की सी बौछारों से भीगती मिट्टी की ख़ुशबू लिए आता है सावन...झम झम बारिश में नंग धड़ंग, नाचती कूदती बच्चों की उस टोली की ख़ुशबू...हलवाई की दुकानों में बनते घेवर की ख़ुशबू...स्याही से रंगे पुरानी रफ़ कापियों के कुछ बेजान पन्नों की बनी उन तैरती नावों-किश्तियों की ख़ुशबू...और उनके डूब जाने पर किश्तियों के मालिकों के आंसुओं की खुशबू...सावन में मायके गई घरवाली और उसके घरवाले की विरह की ख़ुशबू...रसोई में भजिये तलती माँ और बाबा के चटकारों की ख़ुशबू...ऊँची ऊँची पींगें लेते झूलों और तीज पे लगी मेहंदी की ख़ुशबू...

धीरे धीरे हरे से पीले पीले फिर सुनहरे होते पत्तो की खुशबू ले आया फिर पतझड़...दुर्गा पूजा का मदमस्त पागलपन और सिन्दूर खेला की ख़ुशबू...दसहरे के जलते रावण की ख़ुशबू....उस रावण को गिरते देख नन्ही आँखों में सुलगते उस जोश की ख़ुशबू....रूख़े सूखे ठूँठ से पेड़ों में हरियाली की एक उम्मीद की ख़ुशबू....

हर इस खुशबू में है कुछ अपनी ही किस्से कहानियों की पोटली...इस पोटली की इक इक गाँठ को धीरे धीरे खोलती नानी दादियाँ...और उनको तजस्सुस से भरे बड़ी बड़ी आँखें किये सुनते और महसूस करते वो छोटे छोटे बच्चे...

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