एक ऐसी शाम हो, जो कभी ख़त्म न हो
सूरज जब ग़र्म लावे की तरह पिघलकर
ज़मीन की गर्त में समा रहा हो
आसमान का रंग न लाल न नीला
गहरा रही हो रात पर शाम ख़त्म न हो
तन्हाई तो नहीं पर अकेलापन भाता है अब
समय की रफ़्तार इतनी धीमी हो
की फुर्सत से साँस तो ले सकें
एक ऐसी शाम हो जो सबसे अलग हो... सबसे शांत... सबसे दूर...
बस मैं... मेरी कल्पनाएँ... और मेरे ख़यालात साथ साथ हों
ख़ुद को जानने की एक कोशिश यूँ ही सही
ज़िन्दगी के इस शोर, इस भीड़ भाड़ से दूर... अलग
सबसे अलग... सबसे जुदा... सबसे भली...
जहाँ बस मैं हूँ और मेरे ख़यालात हों
कल्पना है एक ऐसी शाम की.....
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