बड़ी ही अजीब रही है मेरी कहानी...ऊँची नीची आढ़ी टेढ़ी कुछ गिरहों में उलझी लिपटी...मेरी ज़िन्दगी...
ये गिरहें किसने बाँधी, कैसे बाँधी ये तो अब याद नहीं, पर इनसे कुछ पुराना राबता है मेरा...हाथों से छूती हूँ तो जानी पहचानी सी लगती हैं...
एक अदना से माशारे ने एक एक गिरह को डुबो दिया है अजब से बेमायने, बेमतलब उसूलों के रंग में...
आज मैं, मेरा मज़हब, मेरा ईमान इन उसूलों की तहों की बीच घुट रहा है...नब्ज़ धीमी पड़ रही है, रंग भी कुछ फीका नीला सा पड़ रहा है...दम तोड़ रहा है...
कुछ साँसें मुझसे ही उधार ले ली होतीं....
ये गिरहें किसने बाँधी, कैसे बाँधी ये तो अब याद नहीं, पर इनसे कुछ पुराना राबता है मेरा...हाथों से छूती हूँ तो जानी पहचानी सी लगती हैं...
एक अदना से माशारे ने एक एक गिरह को डुबो दिया है अजब से बेमायने, बेमतलब उसूलों के रंग में...
आज मैं, मेरा मज़हब, मेरा ईमान इन उसूलों की तहों की बीच घुट रहा है...नब्ज़ धीमी पड़ रही है, रंग भी कुछ फीका नीला सा पड़ रहा है...दम तोड़ रहा है...
कुछ साँसें मुझसे ही उधार ले ली होतीं....